एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के एक तथ्यान्वेषी दल की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ राज्य का बस्तर मंडल काफी तेजी से संघर्षों के क्षेत्र में बदलता जा रहा है। यहां सुरक्षा बलों और माओवादियों के बीच लगातार जंग जारी है। इन दोनों के बीच पत्रकार फंसे हुए हैं और उन पर सरकारी व गैर-सरकारी दोनों ही ताकतों का हमला हो रहा है।कई वरिष्ठ पत्रकारों ने इस बात की पुष्टि की है कि एक विवादास्पद नागरिक समूह सामाजिक एकता मंच बस्तर में पुलिस मुख्यालय द्वारा वित्तपोषित और संचालित किया जाता है। उनके मुताबिक यह समूह सलवा जुड़ुम का ही एक अवतार है।
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में तथ्यान्वेषी टीम (एफएफटी) को ऐसा एक भी पत्रकार नहीं मिला जो दृढ़ विश्वास से यह दावा कर सके कि वह डर या दबाव के बिना काम कर रहा/रही है।
एफएफटी को विभिन्न पत्रकारों ने बताया कि लड़ाई वाले क्षेत्र में जाने की उनकी हिम्मत नहीं है, क्योंकि वे वहां से तथ्यों की रिपोर्टिंग नहीं कर सकते।
बस्तर और रायपुर के संवाददाताओं को इस बात का डर था कि उनके फोन टैप किये जा रहे हैं, या फिर उन्हें सर्विलांस पर रखा जा रहा है, लेकिन रायपुर के अधिकारियों ने एफएफटी के साथ हुई बैठक में इस “अनुभूति” को खारिज कर दिया।
एफएफटी ने बस्तर में काम करने वाले पत्रकारों को चार बड़े समूहों में श्रेणीबद्ध किया हैः पेशे से पत्रकार; अंशकालिक पत्रकार; स्ट्रिंगर्स और न्यूज एजेंट्स; तथा अतिथि संवाददाता। टीम ने पाया कि अधिकतर पत्रकार दूसरी और तीसरी श्रेणी से है। इसका मतलब यह है कि उनका समाचार संस्थानों से कोई औपचारिक अनुबंध नहीं है, कोई सुरक्षा नहीं है तथा मीडिया के संपादकों से बहुत कम या बिल्कुल भी समर्थन नहीं है।
जिला मुख्यालयों से बाहर काम करने वाले पत्रकारों के प्रत्यायन की कोई क्रियावली नहीं है। इसलिए जब पहचान का सवाल उठता है, तो सरकार सीधे इस बात से इंकार कर देती है कि कोई पत्रकार है या था। मीडिया घराने भी कई बार दायित्व से बचने के लिए इन पत्रकारों को अपनाने से मना कर सकते हैं।
बस्तर में टीम जिन पत्रकारों से मिली, उनमें से कुछ ही स्थानीय आदिवासी भाषाएं बोल सकते थे।
एफएफटी की मुलाकात सुब्बा राव से हुई, जो विवादास्पद ‘सामाजिक एकता मंच’ के संयोजक हैं, जिसे नागरिक ‘सल्वाजुडूम’ का एक प्रकार समझा जाता है। राव दंतेवाड़ा में अविदित दैनिकों के संपादक हैं, लेकिन सरकारी तथा निजी सेक्टर दोनों की ही परियोजनाओं के प्रसिद्ध ठेकेदार हैं।
प्रख्यात पत्रकार तथा हिंदी दैनिक, ‘देशबंधु’ के संपादक ललित सुर्जन ने एफएफटी को बतायाः “यदि आप स्वतंत्रतापूर्वक किसी भी चीज का विश्लेशण करना चाहते हैं तब आपका यह आकलन किया जा सकता है कि आप सरकार के साथ हैं या माओवादियों के साथ। पत्रकारिता के लिए लोकतांत्रिक स्थान सिकुड़ता जा रहा है।
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